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भीड़ः कोविड लॉकडाउन के दौरान भारतीय प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा

यह आलेख 30 जून 2024 को अंग्रेजी में छपे लेख The Bheed: The plight of India’s migrant workers during the COVID-19 lockdown का हिंदी अनुवाद है।

कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान पुलिस बैरिकेड पर फंसे हुए प्रवासी मज़दूर, जैसा ‘भीड़’ में दिखाया गया है। (फ़ोटोः भीड़) [Photo: Bheed]

‘भीड़’ एक हिंदी फ़िल्म है जिसे दस (2005), रा वन (2011), मुल्क (2018), आर्टिकिल 15 (2019), थप्पड़ (2020) जैसी फ़िल्में बनाने वाले अनुभव सिन्हा ने निर्देशित और निर्मित किया। यह 2023 में रिलीज़ हुई थी। और अभी भी नेटफ़्लिक्स पर उपलब्ध है।

जाने माने बॉलीवुड एक्टरों और ब्लैक एंड व्हाइट जैसे दृश्यों के साथ यह फ़िल्म, मार्च 2020 के अंतिम में मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर थोपे गए कोविड-19 लॉकडाउन से भारतीय जनता को हुई भयानक दुर्दशा और दुखों के कुछ पहलुओं से पर्दा हटाती है। घातक वायरस से निबटने के लिए मोदी सरकार के कारनामों के जो परिणाम सामने आए उसे काल्पनिक रूप से पेश करने और उसे संवेदनशील तरीक़े से दिखाने के लिए सिन्हा की फ़िल्म में कुछ वास्तविक घटनाओं को शामिल किया गया है जो लॉकडाउन के दौरान घटित हुईं थीं।

21 दिनों के लॉकडाउन के कारण ग़रीबी से, त्रस्त ग्रामीण इलाक़ों और कस्बों से विस्थापित होकर भारत के औद्योगिक शहरों में रोजी रोटी कमाने गए करोड़ों लोगों की अचानक नौकरी चली गई और खाने तक लिए के मोहताज हो गए या अपने गांवों में अपने घर पैसे भेजने में असमर्थ हो गए। हालात इतने ख़राब हो गए थे कि कुछ मज़दूरों ने उस समय मीडिया को बताया था कि कोविड-19 की बजाय वो भूख से मर जाएंगे।

मोदी के लॉकडाउन में पूरी रेल सेवा और बस यात्री सेवाओं को व्यापक रूप से बंद कर दिया गया और पुलिस को निर्देश दिए गए कि सड़कों को बंद करने के लिए बैरिकेड और अन्य तरीक़े अपनाए जाएं और ज़रूरी पड़े तो एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने से रोकने के लिए लोगों पर डंडात्मक कार्रवाई की जाए। 

इन कार्रवाईयों और बड़े पैमाने पर टेस्टिंग करने, संपर्क में आए लोगों की पहचान करने और अन्य बुनियादी कोरोना वायरस सुरक्षा उपायों या आर्थिक मदद मुहैया कराने में सरकार की विफलता के कारण, करोड़ों ग़रीब मज़दूरों ने दूरदराज़ के गांवों में अपने घरों को लौटने की कोशिश की।

मीडिया रिपोर्टों में इसे, 1947 में उपमहाद्वीप में हुए साम्प्रदायिक विभाजन, जिसके बाद मुस्लिम पाकिस्तान और नाममात्र के सेक्युलर इंडिया का जन्म हुआ, के बाद का सबसे बड़ा आंतरिक विस्थापन कहा गया।

सिन्हा की फ़िल्म की शुरुआत पुलिस ब्लॉकेड से बचने के लिए रेलवे पटरी पर अपने परिवार के साथ चल रहे थके मांदे मज़दूरों के एक समूह पर फ़ोकस से शुरू होती है। ये रेलवे लाइनें उनके गांव तक पहुंने का सबसे छोटा रास्ता मुहैया कराती हैं।

थोड़े बहुत खाने को साझा करने के बाद, वे मज़दूर रेलवे लाइन की पटरियों पर ही सो जाते हैं, इस बात से अनभिज्ञ कि मालगाड़ियां अभी भी चल रही थीं, जिसका ख़ामियाज़ा बहुत भीषण होने वाला था। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2020 में लॉकडाउन के दौरान ट्रेनों से टकरा कर या कट कर 8,733 प्रवासी मज़दूरों की मौत हो गई जबकि 800 घायल हुए थे। 

‘भीड़’ में पुलिस अधिकारी सूर्य कुमार टिकास (राजकुमार राव) (फ़ोटोः भीड़) [Photo: Bheed]

इसके बाद ‘भीड़’ के मुख़्य क़िरदार सूर्य कुमार टिकास (राजकुमार राव) फ़िल्म में प्रवेश करते हैं, जो एक युवा इंस्पेक्टर हैं और पिछड़ी जाति की पृष्ठभूमि से आते हैं। वो और रेनू शर्मा (भूमि पाडनेकर), जो मेडिसिन की पड़ाई कर रही होती हैं और ऊंची जाति की पृष्ठभूमि से आती हैं, प्यार में होते हैं। रिश्ते को लेकर रेनू का परिवार विरोध में होता है। असल में सूर्य कुमार के पिता ने अपने सरनेम टिकास को बदलकर सिंह कर लिया था ताकि निचली जाति की पृष्ठ भूमि को छिपाया जा सके।

इसके शुरुआती सीन भारत के गांवों में जातीय भेदभाव की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है। टिकास के एक रिश्तेदार को गांव के मंदिर के हैंडपंप से पानी पीने की हिम्मत करने के लिए स्थानीय प्रशासन से जुड़े लोगों द्वारा बुरी तरह पीटा जाता है। उस गांव में निचली जातियों के लोगों के लिए इसकी मनाही होती है। टिकास और पुलिस इंस्पेक्टर शिव यादव (आशुतोष राणा) जीप से पहुंचते हैं और खंभे से बंधे उस व्यक्ति को छुड़ाते हैं। 

इसके बाद ‘भीड़’ का दूसरा सीन दिल्ली से 1,200 किलोमीटर दूर तेजपुर बॉर्डर पर खड़े किए गए बैरिकेड की ओर मुड़ती है, जहां फ़िल्म का अधिकांश हिस्सा केंद्रित होता है। अभी हाल ही में प्रमोट किए गए टिकास को जल्दबाज़ी में खड़े किए गए बॉर्डर बैरिकेड का इंचार्ज बनाया जाता है और आदेश दिया जाता है कि इसे किसी को भी पार न करने दिया जाए। 

जल्द ही इस पुलिसकर्मी को लोगों के समुद्र से सामना होता है। कुछ लोग यहां पैदल चलकर पहुंचे हैं, बहुत से लोग रिक्शा ठेला खींचते पहुंचे हैं, बाकी लोग साइकिल, बैलगाड़ी, ट्रैक्टर या बसों, कारों और ट्रकों से पहुंचते हैं। ताज़ा ताज़ा बनी राज्य सीमा पर पुलिस द्वारा रोके जाने पर वो लोग आस पास के खेतों में बिखर जाते हैं। फ़िल्म का सबसे भावुक पल तब आता है जब कैमरा इस पूरी पृष्ठभूमि को लेंस में क़ैद करता है और भयावह हालात का सामना कर रहे प्रवासी मज़दूरों को दिखाता है। 

इस सीन में एक टेलीविज़न पत्रकार अपने कैमरामैन के साथ पहुंचता है। एक धनी महिला अपने ड्राइवर के साथ बॉर्डर पर पहुंचती है। एक अज्ञात किशोरी अपनी साइकिल पर बीमार और शराबी पिता को लेकर बॉर्डर पर पहुंचती है। वे पिछली रेल दुर्घटना से बचे हुए लोग थे। टिकास की गर्लफ़्रेंड भी अपनी मोटरसाइकिल से वहां पहुंच जाती है और लोगों की मदद के लिए एक अस्थाई मेडिकल कैंप लगाती है। 

इस फ़िल्म एक और मुख्य क़िरदार बलराम त्रिवेदी (पंकज कपूर) पुलिस चेकप्वाइंट पर अहम भूमिका में नज़र आते हैं। पहले वो एक इमारत में सिक्युरिटी गॉर्ड के रूप में काम करते थे, उन्होंने सिक्युरिटी गार्डों के परिवारों को बस में ले जाने की व्यवस्था रखी थी। वो एक करिश्माई और कुछ हद तक अहंकारी व्यक्ति हैं, जो ब्राह्मण जाति के होने के नाते अपनी “प्रतिष्ठा” को अच्छी तरह जानते हैं। 

जब एक अन्य बस के मुस्लिम यात्री त्रिवेदी के बस में रोते बिलखते बच्चों को खाना देने की कोशिस करते हैं, त्रिवेदी उनकी दिलेरी को अस्वीकार कर देता है और उन पर वायरस फैलाने का आरोप लगाता है, जिसे कि फ़िल्म के मूल वर्ज़न में वो कोरोना जिहाद कहता है।

‘भीड़’ जब रिलीज़ हुई तो सेंसर बोर्ड के कहने पर “जिहाद” शब्द को हटा दिया गया। असल में जब भारत में कोविड-19 महामारी फैली तो “कोरोना जिहाद” का मुस्लिम विरोधी लांछन पहली बार एक वरिष्ठी बीजेपी नेता ने लगाया था और इसके बाद अन्य हिंदू कट्टपंथियों ने इसे फैलाया। सेंसर द्वारा लगाया गया कट, हिंदू कट्टपंथियों और हर संकट में उनके सांप्रदायिक एजेंडे से ध्यान हटाने के मकसद से किया गया था। 

भारतीय सेंसर, दर्शकों को इस तबाही के लिए मोदी सरकार की ज़िम्मेदारी को याद न दिलाने को लेकर चिंतित था और उसने फ़िल्म से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रधानमंत्री के जो भी ज़िक्र हुए उसे हटा दिया। घातक वायरस को रोकने के लिए सरकार की ओर से कोई गंभीर स्वास्थ्य उपाय नहीं अपनाए गए और अप्रैल के अंत में जब लॉकडाउन हटाया गया, तबतक भारत वायरस से तेज़ी से प्रभावित होने वाला सबसे बड़ा देश बना गया। प्रवासी मज़दूरों पर हुए बर्बर पुलिसिया हमलों के कुछ दृश्य भी इस फ़िल्म से हटा दिये गए थे। हालांकि 2020 के लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई हमले हुए थे। 

‘भीड़’ में बलराम त्रिवेदी (पंकज कपूर) (फ़ोटोः भीड़) [Photo: Bheed]

दाने दाने तक को मोहताज होने के कारण, प्रवासी मज़दूरों और उनके बच्चों की हालत बिगड़ रही थी, इसलिए त्रिवेदी और उसके साथ कुछ लोगों ने चेकप्वाइंट पर जाने का फैसला किया और टिकास से गुहार लगाई कि उन्हें पड़ोस से कुछ खाना लाने की इजाज़ दी जाए जबकि बॉर्डर के दूसरी तरफ़ मॉल बद पड़े थे। लेकिन पुलिस ने उसे और उसके साथियों को पीटा और बैरिकेड से पीछे धकेल दिया। 

बाद में त्रिवेदी एक बार फिर पुलिस के सामने जाता है, पुलिस की राइफ़ल छीन लेता है और किसी तरह वो अकेले दम पर पुलिसकर्मियों को चकमा देकर मॉल में घुस जाता है। हालांकि ये सीन और अंत में शॉपिंग मॉल में हथियार लिए हुए त्रिवेदी और टिकास के बीच शांतिपूर्ण बातचीत और सुलह को दिखाया जाना हजम नहीं होता। 

हालांकि ‘भीड़’ वर्ग विशेषाधिकारों और दमनकारी जाति विभाजन के प्रति एक स्वाभाविक नफ़रत पर आधारित है, लेकिन यह भारतीय सामाजिक संबंधों में प्रमुख कारक के रूप में वर्ग की बजाय जातीय पहचान को प्रमुखता देती है। फ़िल्म में वर्ग को निश्चित रूप से नज़रअंदाज नहीं किया गया है, लेकिन इसके क़िरदार लगभग पूरी तरह से अपनी जाति की पहचान से बंधे हुए हैं।

फ़िल्म इस पहलू को बहुत बढ़ा चढ़ा कर पेश करती है और पिछले साल भारतीय मज़दूरों द्वारा लगातार हड़तालों की सच्चाई को नज़रअंदाज़ करती है, जिसमें लॉकडाउन के ठीक पहले जनवरी में करोड़ों मज़दूरों की आम हड़ताल भी शामिल है, जिसमें धार्मिक संकीर्णता, जातीय और जातीय विभाजन की सीमा रेखाएं धूमिल हो गई थीं। 

इन सबके बावजूद, सिन्हा की फ़िल्म भारतीय प्रवासी मज़दूरों और अन्य उत्पीड़ित वर्गों की व्यापक पीड़ा को गंभीरता से उजागर करती है और बॉलीवुड स्टूडियो द्वारा हर साल तैयार की जाने वाली सैकड़ों बकवास एक्शन कहानियों और अन्य चमकदार मनोरंजन से बिल्कुल अलग है। फ़िल्म व्यापक दर्शक वर्ग की हक़दार है।

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